Extinction of Vultures: कभी मरे हुए जानवरों के ऊपर मंडराते हुए गिद्ध भारत के आसमान में एक आम नजारा हुआ करते थे। लेकिन आज ये प्राकृतिक सफाईकर्ता हमारे आसमान से लगभग गायब हो चुके हैं। शिकागो यूनिवर्सिटी की रिसर्च ने एक चौंकाने वाला खुलासा किया है, कि 1990 से 2007 के बीच भारत में 99 फीसदी गिद्ध खत्म हो गए। यह सिर्फ एक पर्यावरणीय समस्या नहीं है, बल्कि इसका सीधा असर इंसानों की जिंदगी पर पड़ा है। गिद्धों के गायब होने की वजह से मरे हुए जानवरों की सफाई नहीं हो रही, जिससे इन्फेक्शन फैल रहा है। रिपोर्ट्स के अनुसार, इसकी वजह से अब तक 5 लाख लोगों की मौत हो चुकी है।
Extinction of Vultures डाइक्लोफेनाक की वजह से हुई तबाही-
अंग्रेजडी समाचार वेबसाइट न्यूज़18 के मुताबिक, इस इकोलॉजिकल ट्रैजेडी का मुख्य कारण है, डाइक्लोफेनाक नाम की वेटेरिनरी ड्रग। 1990 के दशक में इस दवा का इस्तेमाल मवेशियों के इलाज के लिए किया जाता था। हालांकि यह दवा जानवरों के लिए इफेक्टिव थी, लेकिन मरे हुए मवेशियों में बची हुई इसकी मात्रा गिद्धों के लिए जहर साबित हुई। बहुत कम मात्रा में भी डाइक्लोफेनाक खाने से गिद्धों को एक्यूट किडनी फेलियर हो जाता था। 2006 में भारत ने इस ड्रग को बैन कर दिया, लेकिन अभी भी इसका इल्लीगल यूज जारी है। यही कारण है, कि गिद्धों की पॉप्यूलेशन अभी तक रिकवर नहीं हो पाई है।

Extinction of Vultures कितनी तेजी से घटी गिद्धों की संख्या-
भारत में कभी 4 से 5 करोड़ गिद्ध हुआ करते थे। 2007 तक यह संख्या बेहद खतरनाक रूप से कम हो गई। अलग-अलग स्पीशीज के गिद्धों की कंडीशन देखें तो तस्वीर और भी डरावनी है। व्हाइट-रम्प्ड वल्चर्स में 99.9 फीसदी की कमी आई, इंडियन वल्चर्स में 95 फीसदी और स्लेंडर-बिल्ड वल्चर्स में 97 फीसदी की गिरावट देखी गई। यह हिस्ट्री में किसी भी बर्ड स्पीशीज की सबसे तेज गिरावट में से एक है। एक्सपर्ट्स कहते हैं, कि इतनी तेजी से कोई प्रजाति का खत्म होना प्रकृति के लिए बेहद खतरनाक साइन है।
डाइक्लोफेनाक के अलावा और भी खतरे-
बैन के बावजूद गिद्धों की पॉप्यूलेशन वापस नहीं आई है। इसकी एक वजह यह भी है कि गिद्ध बहुत धीरे-धीरे ब्रीड करते हैं। ये साल में सिर्फ एक अंडा देते हैं। इसके अलावा इन्हें और भी कई खतरों का सामना करना पड़ता है। बिजली की तारों से इलेक्ट्रोक्यूशन, विंड टर्बाइन से टक्कर, और पतंग की डोर से चोट लगना आम बात है। गिद्धों के गायब होने का नतीजा यह हुआ है, कि आवारा कुत्तों और कौवों की संख्या बढ़ गई है। इससे रेबीज और दूसरी जूनोटिक डिजीजेज का रिस्क बढ़ गया है। ये बीमारियां जानवरों से इंसानों में फैलती हैं और बेहद खतरनाक होती हैं।
कल्चरल और इकोनॉमिक नुकसान-
गिद्धों के गायब होने का असर सिर्फ पर्यावरण पर नहीं बल्कि कल्चरल प्रैक्टिसेज पर भी पड़ा है। पारसी कम्यूनिटी स्काई बरियल करती है जो गिद्धों पर डिपेंडेंट होता है। अब उन्हें अपनी फ्यूनरल राइट्स बदलनी पड़ रही हैं। इकोनॉमिक टोल भी बहुत भारी है। 2000 से 2005 के बीच गिद्धों के विलुप्त होने की वजह से सालाना 69.4 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ। लेदर प्रोडक्शन जैसी इंडस्ट्रीज पर इसका सीधा असर पड़ा।
ये भी पढ़ें- जब पंडित जवाहरलाल नेहरू हुए थे बाल झड़ने से परेशान, पिता को लिखा 113 साल पुराना खत वायरल
क्या हो रहे हैं कंजर्वेशन एफर्ट्स-
2016 से भारत ने कंजर्वेशन के लिए सीरियस एफर्ट्स शुरू किए हैं। प्रोटेक्टेड वल्चर स्पीशीज को वाइल्ड में री-इंट्रोड्यूस करने का काम चल रहा है। लेकिन एक्सपर्ट्स कहते हैं, कि सिर्फ गवर्नमेंट के एफर्ट्स काफी नहीं हैं। कम्यूनिटी एंगेजमेंट और डाइक्लोफेनाक बैन की स्ट्रिक्ट एनफोर्समेंट जरूरी है। लोगों को समझाना होगा, कि गिद्ध सिर्फ पक्षी नहीं हैं, बल्कि हमारे इको-सिस्टम का अहम हिस्सा हैं। इनके बिना प्रकृति का बैलेंस बिगड़ जाता है और इसका नुकसान सीधे इंसानों को उठाना पड़ता है।
ये भी पढ़ें- मौत के 7 मिनट बाद होता है क्या? जानें क्या कहते हैं हिंदू शास्त्र और साइंस