Trump YouTube Settlement
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    Trump YouTube Settlement: सोशल मीडिया की दुनिया में एक ऐसी खबर आई है, जिसने पूरी टेक इंडस्ट्री को हिलाकर रख दिया है। YouTube ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को साढ़े चौबीस मिलियन डॉलर यानी करीब 205 करोड़ रुपए देने का फैसला किया है। यह रकम इसलिए दी जा रही है, क्योंकि YouTube ने 2021 में ट्रंप का अकाउंट सस्पेंड कर दिया था। अब सवाल यह उठता है, कि आखिर ऐसा क्या हुआ, कि दुनिया की सबसे बड़ी वीडियो शेयरिंग प्लेटफॉर्म को इतनी बड़ी रकम चुकानी पड़ी? क्या यह सिर्फ एक सेटलमेंट है या फिर इसके पीछे कोई बड़ी कहानी है?

    जब ट्रंप ने यह खबर अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर शेयर की, तो लोग कन्फ्यूज हो गए। कई लोगों को लगा, कि यह कोई पैरोडी अकाउंट है, लेकिन नहीं, यह बिल्कुल ऑफिशियल अकाउंट से आया हुआ पोस्ट था। यह खबर सिर्फ YouTube तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक पूरी कहानी है, जो टेक कंपनियों और पॉलिटिकल पावर के बीच के रिश्तों को दर्शाती है।

    2021 की वह घटना जिसने सब कुछ बदल दिया-

    साल 2021 की शुरुआत में अमेरिकी राजनीति में एक ऐसी घटना हुई। छह जनवरी 2021 को अमेरिकी कैपिटल बिल्डिंग पर हमला हुआ, जहां ट्रंप के समर्थकों ने हिंसक तरीके से दंगा किया। इस घटना के बाद सोशल मीडिया कंपनियों ने एक बड़ा फैसला लिया। उन्होंने माना, कि ट्रंप के सोशल मीडिया पोस्ट और वीडियो से वायलेंस भड़क सकती है और लोगों को उकसाया जा सकता है।

    YouTube ने बारह जनवरी 2021 को ट्रंप का चैनल सस्पेंड कर दिया। कंपनी का कहना था, कि ट्रंप के कंटेंट ने उनकी पॉलिसी को वॉयलेट किया है, जो वायलेंस को इंसाइट करने के खिलाफ है। YouTube अकेली नहीं थी, जिसने यह कदम उठाया था। Facebook ने भी ट्रंप के अकाउंट को सस्पेंड कर दिया था। Twitter ने तो उनका अकाउंट परमानेंटली बैन ही कर दिया था। उस समय ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति थे, लेकिन उनका कार्यकाल खत्म होने वाला था और वह पावर में नहीं रहने वाले थे।

    जब ट्रंप ने टेक कंपनियों पर ठोका केस-

    अपने अकाउंट सस्पेंड होने के बाद ट्रंप ने चुप बैठने का फैसला नहीं किया। उन्होंने YouTube, Facebook और Twitter जैसी बड़ी टेक कंपनियों के खिलाफ कोर्ट में केस दायर कर दिया। ट्रंप का आरोप था, कि इन कंपनियों ने उन्हें अन फेयरली सेंसर किया है और उनकी फ्रीडम ऑफ स्पीच का हक छीना है। उनका मानना था, कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने पॉलिटिकल बायस दिखाते हुए उनके साथ अन्याय किया है।

    हालांकि उस समय ट्रंप पावर में नहीं थे, लेकिन उन्होंने यह लड़ाई जारी रखी। साल 2024 के चुनाव में जब ट्रंप ने फिर से जीत हासिल की और दोबारा राष्ट्रपति बने, तो टेक कंपनियों की घबराहट देखते ही बनती थी। अब ट्रंप फिर से पावर में थे और उनके खिलाफ चल रहे केस अब एक बड़ा सिरदर्द बन चुके थे।

    टेक कंपनियों ने खोला अपना खजाना-

    ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद सोशल मीडिया कंपनियों ने अपनी स्ट्रैटेजी बदल दी। सबसे पहले Meta यानी Facebook की पैरेंट कंपनी ने जनवरी 2025 में पच्चीस मिलियन डॉलर यानी करीब 210 करोड़ रुपए का सेटलमेंट किया। इस रकम में से बाईस मिलियन डॉलर ट्रंप की प्रेजिडेंशियल लाइब्रेरी के लिए दिए गए, जबकि बाकी रकम लीगल फीस और दूसरे plaintiffs को दी गई।

    फिर X यानी पहले का Twitter भी पीछे नहीं रहा। रिपोर्ट्स के मुताबिक X ने दस मिलियन डॉलर का सेटलमेंट किया और अब सितंबर 2025 के आखिर में YouTube ने भी साढ़े चौबीस मिलियन डॉलर देने की घोषणा कर दी। इस तरह तीनों बड़ी टेक कंपनियों ने ट्रंप के केस को सेटल करने के लिए करीब साठ मिलियन डॉलर यानी पांच सौ करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम चुकाई है।

    कोर्ट सेटलमेंट के पीछे की कहानी-

    YouTube का यह सेटलमेंट कैलिफोर्निया के ओकलैंड में फेडरल कोर्ट में फाइल किया गया है। Alphabet यानी Google की पैरेंट कंपनी, जो YouTube की मालिक है, ने इस डील को स्वीकार कर लिया। इस सेटलमेंट की सबसे दिलचस्प बात यह है, कि इसमें से बाईस मिलियन डॉलर Trust for the National Mall के लिए जाएंगे, जो White House की कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट्स में इस्तेमाल होंगे। बाकी रकम लीगल फीस और अन्य खर्चों के लिए है।

    कोर्ट फाइलिंग के मुताबिक यह सेटलमेंट ट्रंप और अन्य plaintiffs के बीच हुआ है, जो 2021 के सस्पेंशन से प्रभावित हुए थे। YouTube ने इस मामले में कोई गलती स्वीकार नहीं की है, लेकिन लंबी कानूनी लड़ाई से बचने के लिए सेटलमेंट करना बेहतर समझा।

    क्यों टेक कंपनियां ट्रंप से डर रही हैं?

    इस पूरे मामले को देखकर एक बात साफ हो जाती है, कि टेक कंपनियां अब ट्रंप से टकराव नहीं चाहतीं। जब ट्रंप पावर में नहीं थे, तब तो इन कंपनियों ने उनके अकाउंट बिना किसी हिचकिचाहट के सस्पेंड कर दिए। लेकिन अब जब वह फिर से राष्ट्रपति बन गए हैं, तो सभी कंपनियां उनसे रिश्ते सुधारने में लगी हैं।

    Meta के मालिक Mark Zuckerberg ने तो ट्रंप के इनॉगरेशन में भी हिस्सा लिया और कई बार Mar-a-Lago गए। Meta ने ट्रंप की कैंपेन को एक मिलियन डॉलर का डोनेशन भी दिया। कंपनी ने अपने डाइवर्सिटी प्रोग्राम बंद कर दिए और फैक्ट-चेकिंग पॉलिसी में भी बदलाव किए। YouTube और Google भी अब ज्यादा सावधान हो गए हैं, कि कहीं ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन से उनके रिश्ते खराब न हो जाएं।

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    सोशल मीडिया की ताकत और उसकी सीमाएं-

    इस पूरे मामले से एक बात बिल्कुल साफ हो गई है, कि सोशल मीडिया कंपनियां बहुत ताकतवर जरूर हैं, लेकिन वे सरकारी पावर से ज्यादा ताकतवर नहीं हैं। ट्रंप ने यह साबित कर दिया, कि अगर आप पॉलिटिकल पावर में हैं, तो टेक कंपनियां आपके सामने झुकने को मजबूर हो जाती हैं।

    यह मामला फ्री स्पीच, सेंसरशिप और पॉलिटिकल इन्फ्लुएंस के बीच के संतुलन के बारे में भी सवाल उठाता है। क्या सोशल मीडिया कंपनियों को किसी की स्पीच को रोकने का अधिकार है? अगर कोई कंटेंट वायलेंस को प्रमोट करता है, तो क्या उसे बैन किया जाना चाहिए? और सबसे बड़ा सवाल, क्या ये फैसले पॉलिटिकल बायस से मुक्त हैं?

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