NASA
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    NASA: मंगल पर जीवन या मानव बस्ती को बसाना अब बस सपना नहीं रहा है। वैज्ञानिकों ने इस पर काम शुरू कर दिया है और जल्द ही मंगल की सतह को जीवन मिलेगा और मानव को नया घर। या यूं कहें जीवन को पृथ्वी के अलावा एक और ठिकाना मिलने वाला है, जिसमें वैज्ञानिकों ने दशकों से जान लगा रखी है। 4 जुलाई 1997 में नासा का यान पानी और जीवन की तलाश में मंगल ग्रह पर गया था। वहां उस रोवर ने खोजबीन शुरू की और उस सतह पर प्राचीन जीवन के लक्षण ढूंढने लगा। इस खोज में उसने कई तालाब और नदियों को खोजा। इसका मतलब सदियों पहले मंगल पर नदी नाले और महासागर मौजूद थे। इसलिए वहां पर निशान पाए गए हैं और वहां पानी था। तो जीवन भी जीवन भी ज़रुर होगा। कई दशक मंगल ग्रह पर रिसर्च करने के बाद ये निष्कर्ष निकाला गया, कि किसी जमाने में वहां जबरदस्त धूमकेतु या एशटेरॉइड की टक्कर हुई होगी। उस वजह से मंगल ग्रह तबाह हुआ होगा और वहां पर बड़ी मात्रा में ज़ेनन 129 गैस मिली है।

    परमाणु युद्ध होने की पूरी-पूरी संभावना-

    यह गैंस परमाणु विस्फोट के बाद तैयार होती है, इसलिए कई वैज्ञानिक यह भी कहते हैं, की मंगल ग्रह पर कई बार परमाणु विस्फोट किया गया है या वहां पर परमाणु युद्ध होने की पूरी-पूरी संभावना है। जिसने उस ग्रह पर जीवन को पूरी तरह से खत्म कर दिया और हो सकता है, यही वजह पृथ्वी पर जीवन के खात्में की हो, अगर पृथ्वी के बाहर इंसान की पहुंच की बात की जाए, तो इंसान पृथ्वी के बाहर सिर्फ चांद पर ही पहुंच पाया है। वहीं मार्स की बात करें, तो यह मून 650 गुना ज्यादा दूरी पर है। धरती से मंगल ग्रह पर जाने में सात साल का समय लगेगा। लेकिन यह जितना आसान लगता है, उतना ज्यादा आसान है, नहीं।

    क्योंकि इतने लंबे ट्रेवल के लिए बहुत ज्यादा मात्रा में फ्यूल लगेगा पर आज तक हमने कुछ सैटेलाइट मुश्किल से मंगल पर भेजी हैं। इसलिए बहुत सारी चुनौतियां सामने आ गई थी और ऐसे में तो इस रॉकेट के अंदर कई सारे इंसान भी होंगे, जिसकी वजह से इस रॉकेट का वज़न आज तक मार्स पर भेजे गए, किसी भी सेटेलाइट से कई गुना ज्यादा होगा और इस वजह से और भी ज्यादा फ्यूल चाहिए और इतना ज्यादा फ्यूल रॉकेट में कहां स्टोर किया जाएगा और इंसानों के साथ उनका खाना पीना भी तो जाएगा। लेकिन इस फ्यूल के वजन को कम करने के लिए वॉल्टर इंग्लैंड नाम के एक नासा के वैज्ञानिक ने कमाल का आईडिया सामने लाया है।

    लैंडिंग में यूज़ होने वाला फ्यूल-

    जब रॉकेट को लैंड करवाया जाता है, तो काफी ज्यादा मात्रा में तभी पेट्रोल यूज़ होता है, तो इसलिए ऐसा किया जा सकता है की जैसे ही रॉकेट मार्स के ऑर्बिट में आएगा, तो सभी पैसेंजर्स को और जो सारी इंपोर्टेंट चीज़ हैं, सबको लैंडर के जरिए नीचे भेज दिया जाएगा। जिससे लैंडिंग में यूज़ होने वाला फ्यूल बच जाएगा और रॉकेट का वजन कम रहेगा। लेकिन एक और मुसीबत सामने है, कि आखिर लैंडर को सही तरीके से मार्स पर लैंड कैसे किया जाए। मार्स का एटमॉस्फेयर बहुत ही ज्यादा रेयर फाइड है और इसका एवरेज सर्फेस टेंशन बस 610 पास्कल्स है, जो पृथ्वी से प्रतिशत 100 गुना कम है, जिसकी वजह से लैेंडर की स्पीड हवा में कम नहीं होगी और हमें सॉफ्ट लैंडिंग नहीं मिल पाएंगी। सॉफ्ट लैंडिंग तभी हो पाएगी, अब जो लैंडर होगा, वह मार्केट एटमॉस्फेयर में 12 डिग्री के एंगल से एंट्री करेगा। उससे ज्यादा हुआ, तो फिर बैलेंस बिगड़ जाएगा और लैंडर क्रेश हो जाएगा।

    अगर हम सोंचें की सब कुछ प्लान के मुताबिक हुआ, तो 2 मिनट में लैंडर की स्पीड 20,000 किलोमीटर प्रति घंटा से 1600 किलोमीटर प्रति घंटा पर आ जाएगी और इस बीच सिलेंडर में हजार डिग्री सेल की गर्मी होगी। लेकिन उसको कम करने क लिए हीट शिल्ड एक्टिवेट हो जाएगी, ताकि अंदर का व्यक्ति गर्मी से मर ना जाए और उसके बाद जब ब्लेंडर मार्स से 10 किलोमीटर दूर होगा, तो उसके पैराशूट खुल जाएंगे और 2 किलोमीटर दूर होगा, तब उसके बूस्टर ऑन हो जाएंगे। यह सब होने में लगभग 6 से 7 मिनट का समय लगेगा और इसे नासा द् सेवन मिनट ऑफ टेरर कहती है। यानि की किसी भी स्पेसक्राफ्ट के लैंडिंग का समय टेरर टाइम होता है।

    लूसी बेर्टहाउट नाम की वैज्ञानिक-

    अब आप यह तो समझ ही गए होंगे, की मंगल करना बिल्कुल भी आसान नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है, कि लैंड करने के बाद सब कुछ मक्खन है, बल्कि असली मुसीबत तो यहां पहुंचने के बाद ही शुरू होने वाली है, अब ये बात थोड़ी अटपटी लग सकती है, लेकिन मार्स पर जिंदगी शुरू करने के लिए हमें पृथ्वी और मार्स के बीच में कोई एक स्टेशन बनाना पड़ेगा, जो कि हमारा मून हो सकता है। लूसी बेर्टहाउट नाम की एक वैज्ञानिक का कहना, कि मार्स पर जाने के लिए हमें अर्थ के ऑर्बिट से बाहर है एक गेटवे या फिर स्पेस स्टेशन बनाना ही पड़ेगा। ताकि बार-बार मार्स तक का ट्रैवल पॉसिबल हो सके और आगे आने वाले 10 सालों में नासा मून पर एक गेटवे बनाने वाली है। मार्स पर जाने के लिए यानी यहां एक स्टेशन होगा, लेकिन मून के ऑर्बिट में घूमेगा और एस्ट्रोनॉट्स पहले अर्थ से मून तक जाएंगे।

    मार्स की जमीन से पानी और ऑक्सीजन-

    वहां से रिफिल करके फिर वह मार्स तक पहुंचेंगे और एलन मस्क जो है, वह भी 30 लोगों के ग्रुप को मंगल पर भेजने का वादा कर चुके हैं। वह वहां पर जाकर कॉलोनाइजेशन शुरू करने वाले हैं, कि उनका यह भी कहना है कि मार्स पर कॉलोनाइजेशन शुरू करने से पहले हमें मार्स की जमीन से पानी और ऑक्सीजन निकालने का तरीका डेवलप करना पड़ेगा और अगर हम ऐसा नहीं कर पाए, तो एलन मस्क का प्लान फ्लॉप हो जाएगा। क्योंकि धरती से इतना ज्याद ऑक्सीज़न और इतना ज्यादा पानी 30 लोगों के लिए लेकर दाना प्रैक्टिकली इंपॉसिबल है। तो हो सकता है कि वहां पहले 30 की जगह 10 लोगों को भेजें, लेकिन फिर वहां पर ऐसे में बेस का निर्माण कैसे किया जाएगा। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का सुझाव है, कि वहां पर हम 3D प्रिंटर का इस्तेमाल कर सकते हैं। जो वहां कि ही मिट्टी का इस्तेमाल करके बेस को 3D प्रिंट करेगा और वही नासा ने तो बर्फ का इस्तेमाल करने के लिए भी आइडिया दिया है।

    इंटरस्टेलर लैब-

    क्योंकि मार्स पर टेंप्रेचर बहुत ज्यादा ठंडा होता है और करीब -60 - 80 तक है, ऐसे में अगर वहां पर इनफ्लैटेबल डोम को बनाया जाए और इसके बीच में खांचे होंगे और उस खांचे में हार्वेस्टर पानी डाला जाएगा, तो यहां बर्फ के डोम बनकर तैयार हो जाएंगे, जहां पर एस्ट्रॉनॉट्स रह सकते हैं और अगर यहां पर वह नहीं रहना चाहते हैं, तो बहुत सारी चीजों को स्टोर के काम में लिया जा सकता है। आपको पता होगा, कि बर्फ चीज़ों को प्रीज़र्व करती है, लेकिन ऐसे में डोम में हम वहां पर वेजिटेबल नहीं उगा पाएंगे। एग्रीकल्चर यानी कि वहां पर खाना पैदा करना कॉलोनाइज़ेशन के लिए सबसे जरूरी है और इसलिए इंटरस्टेलर लैब नाम की कंपनी ने सेल्स कंटेंट ग्रीनहाउस डोम बनाए हैं। बहुत छोटी जगह पर फिट हो जाएंगे पर इनफ्लैटेबल होंगे। इसलिए वहां पर जाकर जब इसमें हवा भर दी जाएगी तो यह बड़े हो जाएंगे और इसमें आराम से वेजिटेबल्स को उगाया जा सकता है।

    भर-भर के माइंनिग-

    अगर जैसा हम सोच रहे हैं, वैसा पॉसिबल हो गया, तो इसके बाद यहां रॉकेट के ज़रिए कॉलोनी के लिए सिविलाइजेशन को आगे बढ़ाने के लिए लोगों को पहुंचाया जा सकता है। लेकिन आगे जो स्टेज आने वाला है वह शायद और मुश्किल होने वाला है। माइनिंग एंड फैक्ट्री हमारी पृथ्वी पर भर भर के माइंनिग की जाती है और उसी की बदौलत आज हम इतने ज्यादा डेवलप हुए हैं। फिर चाहे वह कोयले की माइनिंग हो या पेट्रोल, डीजल की। ऐसे में अगर मंगल की बात करें, तो वहां सबसे पहले वहां बर्फ की माइनिंग की जाएगी, क्योंकि वहां पानी का कोई साधन नहीं है। जिसके बाद मंगल की मिट्टी और वहां के पत्थर को भी माइन किया जाएगा, ताकि उसकी मदद से वहां पर घर बनाए जा सके और धरती से हम जो भी मॉडर्न टेक्नोलॉजी की चीज वहां पर भेजेंगे।

    इंफिनिटी मिनरल्स का सोर्स-

    वह धरती पर मिलने वाले मिनरल से ही बने होते हैं, इसलिए वहां हमें मिनिरल्स ढूंढने होंगे, जिससे वहां पर चीज़ें बनाई जा सके और नासा का कहना, कि अगर मंगल पर भी गोल्ड आयरन कॉपर जैसे मिनरल्स मौजूद हैं, लेकिन यह पृथ्वी जितने नहीं हैं और बस 100 सालों तक ही इंसान द्वारा इस्तेमाल किए जा सकते हैं। फिर यह खत्म हो जाएंगे और अरबों डॉरल खर्च करके 100 तक अगर यहां सिविलाइजेशन चला, तो इतनी मेहनत क्यों की जाए, तो जल्दी डिसिज़न पर वहुंचने से पहले हम आपको बता दें, की मंगल ग्रह एस्टेरॉइड बेल्ट के काफी पास है और उन्हें प्रैक्टिकल इंफिनिटी मिनरल्स का सोर्स कहा जाता है।

    नासा के साथ पृथ्वी पर मौजूद और भी कई ऐसी कंपनियां हैं, जो ऐसी टेक्नोलॉजी बना रही हैं, जो जाकर एस्टेरॉइड पर माइनिंग कर सके, क्योंकि यह सच में मिनर्ल्स के अंधे रिज़र्व हैं इनका जितना ज्यादा हो सके, उतना ज़्यादा इस्तेमाल किया जा सकता है और अगर मंगल पर हमारा बेस बन गया, तो बेस का इस्तेमाल करके एस्टेरॉइड से मिनरल निकलना और भी आसान हो जाएगा और फिर यहां पर मौजूद सिविलाइजेशन को यहां तक की धरती पर मौजूद हम लोगों को भी मिनरल्स के खत्म होने की चीन ता है। यानि मिनर्ल्स लेने के लिए हमें मंगल से भी दूर जाना पड़ेगा।

    पैराफार्मिंग-

    फिर यहां पर मौजूद सिविलाइज़ेशन यहां तक कि पृथ्वी पर मौजूद इंसानों की भी मिनिर्ल्स के खत्म होने की चिंता खत्म हो जाएंगी। अब सबसे मुश्किल पड़ाव है पैराफार्मिंग, अगर अभी तक आपको यह लग रहा है, की मंगल ग्रह पर रहने के सबसे बड़े चैलेंज ये होगा, कि यहां पर ग्रेविटी बहुत ज्यादा कमजोर है। यहां पर इतनी ज्यादा कम मात्रा में ऑक्सीज़न है कि यहां सांस पूरी तरीके से इंपॉसिबल है और यहां हड्डियां जमा देने वाली ठंड है, तो आप गलत हो। यहां जो सबसे ज्यादा खतरनाक चीज़ है, वह कॉस्मिक रेडिएशन है।

    धरती के मुकाबले मंगल पर कॉस्मिक रेडिएशन 40 गुना ज्यादा है और इसका कारण है पृथ्वी पर मैग्नेटिक फील्ड है, जो की सूरज से आने वाले कॉस्मिक रेडिएशन को बहुत दूर रखता है और बस थोड़ा बहुत कॉस्मिक रेडिएशन हम तक पहुंच पाता है। जो नुकसानदायक नहीं होता, पर वही मंगल ग्रह पर ऐसा कोई भी फील्ड मौजूद नहीं है, जिससे कॉस्मिक रेडिएशन सीधा मंगल ग्रह के सरफेस पर और वहां पर रहने वाले लोगों पर गिरेगी, जैसे की कुछ ही मिनटों पहले आपके बगल में न्यूक्लियर पावर प्लांट बलास्ट हुआ हो और इससे बचने के लिए हमने एक उपाय पहले भी बताया है, बर्फ के डोम में रहना।

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    कॉस्मिक रेडिएशन-

    लेकिन काम करने के लिए और रिसर्च करने के लिए बार-बार बाहर जाना ही पड़ेगा। इस वजह से कॉस्मिक रेडिएशन बार-बार वैज्ञानिकों को चोट पहुंचाएगी और उससे बचने का एक बहुत ही सनकी तरीका है। एक बहुत ज्यादा बड़े डाइपोल मैग्नेट को सूरज और मंगल के बीच में लगा दिया जाएगा, हालांकि की यह सुनने में बिल्कुल बकवास लगता है, लेकिन यह किया जा सकता है और उसे निकालने वाले जो मैग्नेटिक तरंगे होंगी।

    वह सूरज के कॉस्मेटिक रेडिएशन को मंगल तक नहीं पहुंचने देगी और इससे मंगल का टेंपरेचर भी थोड़ा कम होगा, जो मंगल पर प्लांट के लिए बहुत अच्छा होगा। वैज्ञानिक एक ऐसा प्लांट बना रहे हैं, जो मंगल की धरती पर उग सके, जो कई जगह सफल होते हुए नज़र आ रहे हैं। उससे भी बड़ी बात यह है, कि जिस ग्रह पर हम और आप रहते हैं, हमें उसे बचाने की ज़रुरत है। तभी हम किसी दूसरे ग्रह को रहने लायक बना पाएंगे नहीं तो शायद पृथ्वी हमारे हाथ से निकल जाएगी। इसके बारे में आप क्या सोचते हैं, कमेंट में लिखकर जरूर बताएं।

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