Murli Manohar Joshi
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    Murli Manohar Joshi: बीजेपी के वयोवृद्ध नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने गुरुवार को एक बार फिर देश की राजनीति में खलबली मचा दी। 91 वर्षीय जोशी ने नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में चुनाव के दौरान पैसे बांटने की प्रथा पर तीखा प्रहार किया और कहा, कि सिर्फ चुनाव के समय धन वितरित करने से सच्चा कल्याण नहीं हो सकता। उन्होंने देश भर में राज्यों के बीच बढ़ती आर्थिक असमानता और असंतुलित विकास को लेकर गंभीर चिंता जताई।

    चुनाव से पहले पैसे देना-

    जोशी ने अपने संबोधन में एक बेहद संवेदनशील मुद्दे को उठाया, जो आजकल हर चुनाव में सुर्खियां बटोरता है। उन्होंने कहा, कि आज का सबसे बड़ा सवाल यह है, कि क्या पैसा कल्याण के लिए दिया गया या वोट खरीदने के लिए? राजनीतिक दल इस मुद्दे को सुलझाने वाले नहीं हैं। क्योंकि वे संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल सत्ता में बने रहने के लिए करते हैं। उन्होंने इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी दोनों का उदाहरण देते हुए कहा, कि यह प्रथा नई नहीं है।

    बीजेपी के इस संस्थापक सदस्य की यह टिप्पणी ऐसे समय में आई है, जब बिहार में एनडीए की शानदार जीत को लेकर चर्चा है। माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत चुनाव से पहले 1.25 करोड़ महिला मतदाताओं को दिए गए 10,000 रुपये की नकद राशि ने इस जीत में अहम भूमिका निभाई। जोशी ने कहा, कि लोग आज यह सवाल उठा रहे हैं, कि आपने चुनाव से पहले पैसे बांटे। सरकार कहती है कि यह कल्याण के लिए था, लेकिन विरोधी कहते हैं, कि यह वोट खरीदने के लिए था।

    छोटे राज्यों का प्रस्ताव-

    मुरली मनोहर जोशी ने एक क्रांतिकारी सुझाव दिया, जो भारतीय राजनीति में नई बहस को जन्म दे सकता है। उन्होंने भारत को 70 छोटे राज्यों में पुनर्गठित करने का प्रस्ताव रखा, जहां हर राज्य में संसदीय सीटों की संख्या लगभग बराबर हो और जनसंख्या भी समान हो। उनका मानना है, कि इस तरह के पुनर्गठन से असमान विकास से उपजा भेदभाव खत्म होगा और राजनीतिक एवं आर्थिक अधिकारों का न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित होगा।

    तीसरे जीवीजी कृष्णमूर्ति मेमोरियल लेक्चर में बोलते हुए जोशी ने कहा, कि हर नागरिक को वोट देने का अधिकार तो है, लेकिन कर्नाटक, बिहार, महाराष्ट्र या पूर्वोत्तर में रहने वाले लोगों की आर्थिक ताकत में बहुत बड़ा अंतर है। उन्होंने स्पष्ट किया कि किसी व्यक्ति के वोट में एक निश्चित आर्थिक शक्ति होती है। रेगिस्तान या पहाड़ों में रहने वाले व्यक्ति के पास वही इकोनॉमिक हेफ्ट नहीं है।

    संविधान का वादा-

    संविधान में आर्थिक और राजनीतिक न्याय के आश्वासन का हवाला देते हुए जोशी ने तर्क दिया, कि आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक अधिकारों का सार्थक उपयोग नहीं किया जा सकता। पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कहा, कि एक बार जब राज्यों की जनसंख्या और आर्थिक शक्ति लगभग बराबर हो जाएगी, तो संसद वास्तव में सभी के हित में काम करेगी। उन्होंने हर 10-20 साल में इसकी समीक्षा की भी सिफारिश की।

    जोशी ने चेतावनी दी, कि असमान जनसंख्या वृद्धि और विकास ने राज्यों के बीच की खाई को और गहरा कर दिया है। उन्होंने कहा, कि बढ़ती जनसंख्या वाले कुछ राज्य आर्थिक रूप से कमजोर हो गए हैं, जबकि धीमी जनसंख्या वृद्धि वाले राज्य मजबूत हुए हैं। उत्तर प्रदेश के उदाहरण का जिक्र करते हुए, उन्होंने कहा, कि इस राज्य के पास संसदीय सीटों की बड़ी संख्या है लेकिन आर्थिक ताकत अपेक्षाकृत कम है, जबकि तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों की स्थिति अलग है।

    सीटों के वितरण में भेदभाव और जनगणना की देरी-

    पूर्व केंद्रीय मंत्री ने मौजूदा निर्वाचन क्षेत्रों के वितरण को भेदभावपूर्ण बताया और संविधान के मूल सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए समानता की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने जनगणना और उसके बाद परिसीमन प्रक्रिया में देरी को भी एक बड़ी समस्या बताया। संविधान के अनुसार यह प्रक्रिया हर दस साल में होनी चाहिए।

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    जोशी ने याद दिलाया कि जब इंदिरा गांधी सरकार ने परिसीमन की प्रक्रिया को 25 साल के लिए फ्रीज कर दिया था, तब इस प्रक्रिया का पहला नुकसान हुआ। यह फ्रीज अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान भी जारी रहा। इस देरी का असर आज भी देश के लोकतांत्रिक ढांचे पर दिख रहा है।

    जोशी का यह बयान भारतीय लोकतंत्र में एक जरूरी बहस को जन्म देता है। क्या हमें वास्तव में छोटे राज्यों की जरूरत है? क्या चुनाव से पहले योजनाओं के तहत नकद देना वाकई वोट खरीदना है? और सबसे महत्वपूर्ण, क्या हम आर्थिक समानता के बिना सच्चे लोकतंत्र की कल्पना कर सकते हैं? ये सवाल हर भारतीय नागरिक के लिए विचारणीय हैं।

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